| Article Title |
प्रेम: धूप में हिलता हुआ इन्द्रधनुष |
| Author(s) | सोनाली. |
| Country | India |
| Abstract |
शोध सार:- प्रेम जिस प्रकार एक संवेग है, उसी प्रकार एक स्थायी भाव भी। प्रेम की महिमा का कारण उसका मनोवैज्ञानिक स्थायी भावात्मक विश्व-मंगलकारी रूप है। उसका व्यापक रूप संसार के किसी एक क्षेत्र में ही नहीं, उसकी सम्पूर्ण परिधि में विस्तृत है। संकुचित वैयक्तिक क्षेत्र से लेकर समस्त विश्व के व्यापकतम क्षेत्र तक उसके विभिन्न रूप लक्षित होते हैं। कहीं वह आत्म-प्रेम के रूप में दृष्टिगोचर होता है, कहीं दाम्पत्य प्रेम के रूप में, तो कहीं उसके दर्शन कुटुम्ब-प्रेम के मनोवैज्ञानिक स्थायी भाव के रूप में होते हैं। प्रेम के मनोवैज्ञानिक स्थायी भावात्मक उक्त सभी रूप यद्यपि अपने-अपने क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हंै, तथापि उसकेे किन्हीं दो रूपों के मध्य संघर्ष अथवा विरोध की स्थिति में उनकी श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता का निर्धारण अधिकतम प्राणियों के कल्याण ;ळतमंजमेज हववक व िजीम हतमंजमेज दनउइमतद्ध के सिद्धांत के आधार पर किया जाता है। उसकी व्यापकता एवं महत्ता के विषय में कहा जाता है कि संसार के दारुण हाहाकार से उसकी रक्षा करने वाला, उसका रूप समीर के समान लोक में, और श्वास के समान विश्व-प्राणियों के हृदय-स्पन्दन में, हर्ष एवं शोक में प्रतिक्षण परिव्याप्त रहता है- प्रेम का सम्बन्ध जानने (ज्ञान) और होने (अस्तित्व) में होता है और उसे हम द्वन्द्वात्मक रूप में ही समझ सकते हैं। मनुष्य की चेतना उसके कर्म को निर्देशित करती है, लेकिन चेतना को जन्म देने वाली चीज कर्म है। अतः चेतना और कर्म में द्वन्द्व होता है। दोनों अलग होकर परस्पर संघर्ष करते हैं और पुनः आ मिलते हैं और इसी तरह दोनों निरन्तर विकसित होते रहते हैं। |
| Area | Hindi |
| Issue | Volume 1, Issue 12, December 2024 |
| Published | 17-12-2024 |
| How to Cite | सोनाली (2024). प्रेम: धूप में हिलता हुआ इन्द्रधनुष. ShodhPatra: International Journal of Science and Humanities, 1(12), 65-71. |
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